सिकुड़ते गाँव और बढ़ते शहरीकरण के बावजूद इस समय भी देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या गावों में बसती है आज भी हमारे गाँव हमारी संस्कृति हमारी परम्परा और जीवत जीवन की बचाए हुये हैं गावों का रहन - सहन , संस्कृति आज भी हमें आकर्षित करती हैं . ग्रामीण जीवन का सबसे बड़ा आकर्षण गावं के मेला और बाजार हैं जो आज भी देशी और विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं . गावं का मेला या ग्रामीण साप्ताहिक बाजारों का अपना एक महत्त्व है। देश के एक अरब उपभोक्ताओं में से दो - तिहाई इन्हीं बाजारों से अपनी दैनिक उपयोग की वस्तुओं को खरीदते हैं। देश के आन्तरिक व्यापार का बडा हिस्सा इन्हीं बाजारों में होता है। सकल राष्ट्रीय आय में आधी हिस्सेदारी ग्रामीण है। सरकारी आंकडों के अनुसार वर्ष 2008-09 में देश के ग्रामीण बाजारों से लगभग 20 हजार अरब रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था। इस राजस्व में प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है, जिसका मुख्य कारण ग्रामीण विकास के लिए सरकारी बजट में वृद्धि होना बताया जाता है। भारत में ग्रामीण बाजार दो तरह के हैं। एक वे हैं जहां पर स्थायी दूकानें बनी होती हैं, तथा पूरे दिन व्यावसायिक गतिविधियां चलती रहती हैं। दूसरे वे हैं जहां सप्ताह में एक या दो दिन अस्थायी दूकाने लगती हैं। इन बाजारों को हाट भी कहा जाता है। इनमें दुकानदार के रूप में कृषक, शिल्पकार, लघुउद्यमी और स्थानीय गावों के दुकानदार होते हैं। यहां पर दैनिक उपयोग की वस्तुओं, कृषि उपकरणों, अनाज, कृषि-उत्पादनों की बिक्री व खरीदारी की जाती है। खरीदार भी आसपास के ग्रामीण ही होते हैं। सरल शब्दों में कहा जाये तो ग्रामीण साप्ताहिक बाजार एक तरह से खुदरा बाजार हैं। जिनमें स्थानीय उत्पादों की, स्थानीय दुकानदारों द्वारा बिक्री और स्थानीय उपभोक्ताओंद्वारा खरीदारी की जाती है।
ये साप्ताहिक बाजार सदियों से भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ बने हुए हैं।भारत के ग्रामीण बाजारों में दैनिक उपयोग में आनेवाली वस्तुओं की बिक्री 20 प्रतिशत की रफ्तार से बढ रही है। इसलिए छोटी-बडी कम्पनियां उन तक पहुंचने के लिए नये-नये उपाय कर रही हैं। साबुन, दंतमंजन, तेल, सैम्पू, सौन्दर्य प्रसाधन बनानेवाली कम्पनियों के साथ ही टी.वी., रेफ्रिजरेटर, मोबाइल फोन बनाने वाली और बिस्कुट, चाकलेट, पेय पदार्थ, चिप्स इत्यादि खाद्य पदार्थ बनानेवाली कम्पनियाँ ग्रामीण बाजारों में अच्छा व्यवसाय कर रही हैं। इस समय देश में रोजमर्रा की वस्तुओं की कुल खपत का 40 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण भागों में हो रही है। अनुमान है कि आगामी 3-4 वर्षों में यह खपत बढकर 55 से 60 प्रतिशत हो जायेगी। धन की उपलब्धता के चलते अब सस्ती ही नहीं, बल्कि महंगी वस्तुओं की खपत भी बढने लगी है। जो वस्तुएं शहरी दूकानों में मिलती हैं, उनमें से अधिकांश ग्रामीण बाजारों की स्थायी दूकानों में भी उपलब्ध होने लगी हैं।भारत में ग्रामीण बाजार आज भी स्थानीय दूकानों और खरीदारों पर निर्भर है। स्थानीय पूंजी द्वारा ही इनका ढांचा खडा किया जाता है। इनके विकास में शहरी और बाहरी पूंजी का नितांत अभाव है। बैंक और अन्य वित्तीय व्यवस्थायें भी अधिक रुचि नहीं ले रही हैं। ग्रामीण बैंक पूंजी के अभाव में अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं। रिजर्व बैंक की एक रपट के अनुसार ग्रामीण भाग के 40 प्रतिशत लोगों तक कोई भी औपचारिक वित्तीय सेवा नहीं पहुंच पायी है। ग्रामीण बैंको का अपर्याप्त पूंजी बाजार तथा कर्मचारियों की प्रोन्नति के अवसरों में कमी इन बैंकों को अप्रभावी बना दिया है। फलत: ऋण वसूली भी बेहतर ढंग से नहीं हो पा रही है। ग्रामीण खरीदारों को किसी भी संस्था द्वारा कर्ज उपलब्ध नहीं कराया जाता। आज भी ग्रामीण जनता बहुत सोच समझकर खर्च करती है। उनकी इस आदत में बदलाव लाने के प्रयास किये जा रहे हैं। यदि बडि कम्पनियां अपने उत्पादों को ग्रामीण भागों में खपाना चाहती हैं तो वहां के उपभोक्ताओंको धन सहज सुलभ हो, इसके लिए उपाय करने होंगे।
भारत का ग्रामीण उपभोक्ता अपने भविष्य के प्रति सचेत रहता है। इसलिए अपनी बचत के पैसे से वह जमीन जायदाद या फिर सोना खरीदता है। उपभोग की वस्तुओं के प्रति वह बहुत सावधान रहता है। बडी कम्पनियां उन्हेें कम गुणवत्तावाली वस्तुओं को बेचकर अधिक दिनों तक बाजार में टिकी नहीं रह सकतीं। इसलिए उन्हें अपनी बिक्री बढाने के लिए गुणवत्ता बढाने के साथ-साथ विपणन और वितरण (मार्केटिंग एण्ड डिस्ट्रीब्यूशन) के तरीके बदलने की जरूरत है। तेजी से बढते ग्रामीण बाजारों की सुरक्षा के लिए सरकार को उचित कदम उठाने चाहिए। ग्रामीण उपभोक्ताओं का शोषण न हो सके और उन्हें अच्छी उपयोगी वस्तुएं सही मूल्य पर मिल सकें इसके लिए कानून बनाने होंगे। वस्तुओं के मूल्य और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए "ग्रामीण बाजार नियामक आयोग" जैसी किसी संस्था का गठन करना होगा। इन बाजारों में स्थानीय उत्पाद, कुटीर उद्योगों की वस्तुएं, स्थानीय शिल्पकारों द्वारा निर्मित वस्तुएं, कृषि उत्पन्न इत्यादि मिलते रहें और बडी कम्पनियों द्वारा उन्हें नुकसान न पहुंचाया जाये इसके लिए भी कदम उठाने होंगे।
ग्रामीण बाजार देश की अर्थव्यवस्था का भविष्य हैं। उन्हें प्रोत्साहित करने, उन्हें संरक्षण प्रदान करने, उनकी गति बनाये रखने और उपभोक्ताओं का हित सुरक्षित करने के लिए उचित उपाय करने होंगे। यदि ऐसा न हुआ तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बढता संजाल शहरों की तरह ग्रामीण
भारत के बाजारों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की घुसपैठ के कारण साप्ताहिक ग्रामीण बाजारों का स्वरूप भी प्रभावित हुआ है। स्थायी दूकानों में परम्परागत उपभोग की वस्तुओं की जगह देशी-विदेशी कम्पनियों के उत्पाद सजे मिलते हैं। आवश्यक आवश्यकता की वस्तुओं की जगह सुखकर आवश्यकता की वस्तुओं ने ले ली है। इन वस्तुओं की सहज उपलब्धता से ग्रामीणों में मांग भी बढने लगी है। सरकार की ग्रामीण विकास की योजनाओं - भारत निर्माण योजना, राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी योजना के बजट में भारी वृद्धि किये जाने से ग्रामीण मजदूरों को प्रत्यक्ष पूंजी मिलने लगी है। इसके अलावा किसान कर्ज माफी योजना तथा किसान कर्ज राहत योजना में दिया गया धन भी ग्रामीणों के पास पहुंच रहा है। ग्रामीण सडकों के निर्माण, ग्रामीण आवास व शौचालय के लिए आबंटित सरकारी धन से ग्रामीण बाजार को गति मिल रही है। सरकार ग्रामीण भागों में उपभोक्ता की वस्तुओं की मांग बढाने पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी अपने उत्पादों के साथ मध्यमवर्गीय ग्रामीणों तक पहुंचने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। परिणामस्वरूप देश के गावों में मध्यवर्ग का दायरा बढ रहा है। गावों में मध्यवर्ग से उच्चवर्ग के घरों की संख्या कुल आबादी का 17 प्रतिशत हो गया है। भौतिक तथा सामाजिक आधारभूत ढांचे में आये सुधार, बैंकों के बढते संजाल, परिवहन के साधन तथा संचार व्यवस्था में विस्तार से ग्रामीण बाजारों को लाभ पहुंचा है। वहां रोजगार के प्रत्यक्ष अवसर में वृद्धि हुई है। मंदी के दौर में भारत के ग्रामीण बाजार से कम्पनियों को राहत मिली है। मार्केटिंग कम्पनियों के लिए शहरी उपभोक्ताओं तक पहुंचना, उन्हें रिझाना तथा उनकी पसंद का अनुमान लगाना आसान होता है, किन्तु बने-बनाये सिद्धान्त के आधार पर भारत के ग्रामीण बाजारों के प्रति कोई राय कायम करना मुस्किल काम है। ग्रामीण बाजार काफी विस्तृत भाग में छोटे छोटे टुकडों में बंटे हुए होते हैं। इसलिए ग्रामीणों तक उत्पादों की जानकारी पहुंचाना बहुत कठिन होता है। अखबार, पत्रिका, टी.वी. और रेडियो जैसे पारम्परिक संचार माध्यमों द्वारा भी केवल 50 प्रतिशत ग्रामीणों तक ही सम्पर्क हो पाता है। इन विशेषताओं के कारण बडी कम्पनियाों द्वारा ग्रामीणों की आदतों, पसन्द-नापसंद, उनकी जीवनशैली, रहन - सहन का सूक्ष्म अध्ययन कराया जा रहा है। प्रचार के लिए विज्ञापनों और बडे-बडे होर्डिंग्स के बजाय मुंहजबानी प्रचार पद्धति का सहारा लिया जा रहा है। ग्रामीण बाजारों में पुराने जमाने की तरह गवैयों और विदूषकों द्वारा प्रचार पर भी विचार-विमर्श चल रहा है। इस कार्य में बडी कम्पनियों की मदद गावों में स्थित गैर सरकारी संगठन भी कर रहे हैं। अपने उत्पादों को चर्चित और लोकप्रिय बनाने के लिए ग्रामीण विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियां भी बडी कम्पनियों द्वारा दी जा रही हैं।
ये साप्ताहिक बाजार सदियों से भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ बने हुए हैं।भारत के ग्रामीण बाजारों में दैनिक उपयोग में आनेवाली वस्तुओं की बिक्री 20 प्रतिशत की रफ्तार से बढ रही है। इसलिए छोटी-बडी कम्पनियां उन तक पहुंचने के लिए नये-नये उपाय कर रही हैं। साबुन, दंतमंजन, तेल, सैम्पू, सौन्दर्य प्रसाधन बनानेवाली कम्पनियों के साथ ही टी.वी., रेफ्रिजरेटर, मोबाइल फोन बनाने वाली और बिस्कुट, चाकलेट, पेय पदार्थ, चिप्स इत्यादि खाद्य पदार्थ बनानेवाली कम्पनियाँ ग्रामीण बाजारों में अच्छा व्यवसाय कर रही हैं। इस समय देश में रोजमर्रा की वस्तुओं की कुल खपत का 40 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण भागों में हो रही है। अनुमान है कि आगामी 3-4 वर्षों में यह खपत बढकर 55 से 60 प्रतिशत हो जायेगी। धन की उपलब्धता के चलते अब सस्ती ही नहीं, बल्कि महंगी वस्तुओं की खपत भी बढने लगी है। जो वस्तुएं शहरी दूकानों में मिलती हैं, उनमें से अधिकांश ग्रामीण बाजारों की स्थायी दूकानों में भी उपलब्ध होने लगी हैं।भारत में ग्रामीण बाजार आज भी स्थानीय दूकानों और खरीदारों पर निर्भर है। स्थानीय पूंजी द्वारा ही इनका ढांचा खडा किया जाता है। इनके विकास में शहरी और बाहरी पूंजी का नितांत अभाव है। बैंक और अन्य वित्तीय व्यवस्थायें भी अधिक रुचि नहीं ले रही हैं। ग्रामीण बैंक पूंजी के अभाव में अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं। रिजर्व बैंक की एक रपट के अनुसार ग्रामीण भाग के 40 प्रतिशत लोगों तक कोई भी औपचारिक वित्तीय सेवा नहीं पहुंच पायी है। ग्रामीण बैंको का अपर्याप्त पूंजी बाजार तथा कर्मचारियों की प्रोन्नति के अवसरों में कमी इन बैंकों को अप्रभावी बना दिया है। फलत: ऋण वसूली भी बेहतर ढंग से नहीं हो पा रही है। ग्रामीण खरीदारों को किसी भी संस्था द्वारा कर्ज उपलब्ध नहीं कराया जाता। आज भी ग्रामीण जनता बहुत सोच समझकर खर्च करती है। उनकी इस आदत में बदलाव लाने के प्रयास किये जा रहे हैं। यदि बडि कम्पनियां अपने उत्पादों को ग्रामीण भागों में खपाना चाहती हैं तो वहां के उपभोक्ताओंको धन सहज सुलभ हो, इसके लिए उपाय करने होंगे।
भारत का ग्रामीण उपभोक्ता अपने भविष्य के प्रति सचेत रहता है। इसलिए अपनी बचत के पैसे से वह जमीन जायदाद या फिर सोना खरीदता है। उपभोग की वस्तुओं के प्रति वह बहुत सावधान रहता है। बडी कम्पनियां उन्हेें कम गुणवत्तावाली वस्तुओं को बेचकर अधिक दिनों तक बाजार में टिकी नहीं रह सकतीं। इसलिए उन्हें अपनी बिक्री बढाने के लिए गुणवत्ता बढाने के साथ-साथ विपणन और वितरण (मार्केटिंग एण्ड डिस्ट्रीब्यूशन) के तरीके बदलने की जरूरत है। तेजी से बढते ग्रामीण बाजारों की सुरक्षा के लिए सरकार को उचित कदम उठाने चाहिए। ग्रामीण उपभोक्ताओं का शोषण न हो सके और उन्हें अच्छी उपयोगी वस्तुएं सही मूल्य पर मिल सकें इसके लिए कानून बनाने होंगे। वस्तुओं के मूल्य और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए "ग्रामीण बाजार नियामक आयोग" जैसी किसी संस्था का गठन करना होगा। इन बाजारों में स्थानीय उत्पाद, कुटीर उद्योगों की वस्तुएं, स्थानीय शिल्पकारों द्वारा निर्मित वस्तुएं, कृषि उत्पन्न इत्यादि मिलते रहें और बडी कम्पनियों द्वारा उन्हें नुकसान न पहुंचाया जाये इसके लिए भी कदम उठाने होंगे।
ग्रामीण बाजार देश की अर्थव्यवस्था का भविष्य हैं। उन्हें प्रोत्साहित करने, उन्हें संरक्षण प्रदान करने, उनकी गति बनाये रखने और उपभोक्ताओं का हित सुरक्षित करने के लिए उचित उपाय करने होंगे। यदि ऐसा न हुआ तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बढता संजाल शहरों की तरह ग्रामीण
भारत के बाजारों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की घुसपैठ के कारण साप्ताहिक ग्रामीण बाजारों का स्वरूप भी प्रभावित हुआ है। स्थायी दूकानों में परम्परागत उपभोग की वस्तुओं की जगह देशी-विदेशी कम्पनियों के उत्पाद सजे मिलते हैं। आवश्यक आवश्यकता की वस्तुओं की जगह सुखकर आवश्यकता की वस्तुओं ने ले ली है। इन वस्तुओं की सहज उपलब्धता से ग्रामीणों में मांग भी बढने लगी है। सरकार की ग्रामीण विकास की योजनाओं - भारत निर्माण योजना, राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी योजना के बजट में भारी वृद्धि किये जाने से ग्रामीण मजदूरों को प्रत्यक्ष पूंजी मिलने लगी है। इसके अलावा किसान कर्ज माफी योजना तथा किसान कर्ज राहत योजना में दिया गया धन भी ग्रामीणों के पास पहुंच रहा है। ग्रामीण सडकों के निर्माण, ग्रामीण आवास व शौचालय के लिए आबंटित सरकारी धन से ग्रामीण बाजार को गति मिल रही है। सरकार ग्रामीण भागों में उपभोक्ता की वस्तुओं की मांग बढाने पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी अपने उत्पादों के साथ मध्यमवर्गीय ग्रामीणों तक पहुंचने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। परिणामस्वरूप देश के गावों में मध्यवर्ग का दायरा बढ रहा है। गावों में मध्यवर्ग से उच्चवर्ग के घरों की संख्या कुल आबादी का 17 प्रतिशत हो गया है। भौतिक तथा सामाजिक आधारभूत ढांचे में आये सुधार, बैंकों के बढते संजाल, परिवहन के साधन तथा संचार व्यवस्था में विस्तार से ग्रामीण बाजारों को लाभ पहुंचा है। वहां रोजगार के प्रत्यक्ष अवसर में वृद्धि हुई है। मंदी के दौर में भारत के ग्रामीण बाजार से कम्पनियों को राहत मिली है। मार्केटिंग कम्पनियों के लिए शहरी उपभोक्ताओं तक पहुंचना, उन्हें रिझाना तथा उनकी पसंद का अनुमान लगाना आसान होता है, किन्तु बने-बनाये सिद्धान्त के आधार पर भारत के ग्रामीण बाजारों के प्रति कोई राय कायम करना मुस्किल काम है। ग्रामीण बाजार काफी विस्तृत भाग में छोटे छोटे टुकडों में बंटे हुए होते हैं। इसलिए ग्रामीणों तक उत्पादों की जानकारी पहुंचाना बहुत कठिन होता है। अखबार, पत्रिका, टी.वी. और रेडियो जैसे पारम्परिक संचार माध्यमों द्वारा भी केवल 50 प्रतिशत ग्रामीणों तक ही सम्पर्क हो पाता है। इन विशेषताओं के कारण बडी कम्पनियाों द्वारा ग्रामीणों की आदतों, पसन्द-नापसंद, उनकी जीवनशैली, रहन - सहन का सूक्ष्म अध्ययन कराया जा रहा है। प्रचार के लिए विज्ञापनों और बडे-बडे होर्डिंग्स के बजाय मुंहजबानी प्रचार पद्धति का सहारा लिया जा रहा है। ग्रामीण बाजारों में पुराने जमाने की तरह गवैयों और विदूषकों द्वारा प्रचार पर भी विचार-विमर्श चल रहा है। इस कार्य में बडी कम्पनियों की मदद गावों में स्थित गैर सरकारी संगठन भी कर रहे हैं। अपने उत्पादों को चर्चित और लोकप्रिय बनाने के लिए ग्रामीण विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियां भी बडी कम्पनियों द्वारा दी जा रही हैं।
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