लघु एवं कुटीर उद्योग अपनी वस्तुओं का उत्पादन करके राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान देते है। यदि इनके तकनीकी स्तर पर सुधार किया जाय एवं बिजली से संचालित मशीनों के उपयोग की सुविधाएं इन्हे प्रदान की जाएं तो लघु उद्योगों की उत्पादकता में सुधार किया जा सकता है और राष्ट्रीय उत्पादन में इनके और अधिक योगदान की आशा की जा सकती है। आजकल शहरों में बढते हुए मूल्य-स्तर के कारण मध्यमवर्गीय परिवारों को अपना जीवन-स्तर कायम रखना कठिन होता है। यदि जापानी ढंग से कुछ ऐसी सरल प्रणाली अपनायी जाए जिसमें छोटी मशीनों की सहायता से उत्तम किस्म की उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन किया जा सके तो लघु एवं कुटीर उद्योग मध्यवर्गीय परिवारों के लिए अतिरिक्त आय के साधन बन सकते है। यदि कालेज एवं विश्वविद्यालय में भी लघु उद्योगों के आधार पर प्रशिक्षण एवं उत्पादन सुविधाये प्रदान की जाए, तो इससे निर्धन विद्यार्थीयों को बडा लाभ होगा। वे अपने अध्ययन को जारी रखकर उचित प्रशिक्षण प्राप्त करके राष्ट्रीय उत्पादन एवं बहुसंख्यक ग्रामीण बेरोजगारी की समाप्ति में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते है।
भारतीय अर्थशास्त्र में लघु एवं कुटीर उद्योगों के महत्व का अनुमान उनकी उपयोगिता से लगाया जा सकता है। भारत में बेरोजगारी की समस्या विकट है। पढे-लिखे बेरोजगार युवक बेकारी एवं अर्धबेकारी की समस्या से परेशान है गांव में बडे पैमाने के उद्योग देश में फैले हुये बेरोजगारों को रोजगार नहीं दे सकते। भारतीय कृषि पर जनसंख्या का बोझ पहले से अधिक है जिसे कम किये बिना कृषि उद्योगों में कुशलता नहीं आ सकती है। अत: इतनी विशाल जनसंख्या को काम देने के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि देश में लघु एवं कुटीर उद्योगों का पयर्ाप्त विकास किया जाए। भारत में औसतन खेतों का आकार इतना छोटा है कि वह एक किसान परिवार का पालन पोषण नहीं हो सकता। भारत के कुछ भागों में जहां एक ही फसल होती है वहां कृषकों की दशा और भी खराब है। यदि पशुपालन आदि धंधों का सहारा न मिले तो वह अपना गुजारा भी नहीं कर सकते। अत: कृषि के सहायक धंधों के रूप में लघु एवं कुटीर उद्योगों का विशेष महत्व है। पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय, बागवानी, सूत कातना, कपडा बुनना, मधुमक्खी पालन आदि ऐसे उद्योग है जो सरलता से कृषि के मुख्य धंधों के साथ- साथ अपनाये जा सकते है।लघु एवं कुटीर उद्योगों की सबसे बडी समस्या कच्चा माल पर्यात मात्रा में नहीं मिल पाना है और यदि इन्हे मिलता भी है तो बडी परेशानी के बाद ऊॅचे मूल्य चुकाने के बाद। इससे इनकी लागत मूल्य बढ जाती है और वे अपने आर्डर का माल समय पर तैयार नहीं कर पाते। दूसरी प्रमुख बाधा वित्तीय सुविधाओं का अभाव है। लघु उद्योगपतियों की पूंजी सीमित होती है। व्यापारिक दर पर निजी स्रात्रों से ऋण लेना पडता है।
भारत सरकार द्वारा 1948 से अब तक लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर लगातार विशेष जोर दिया जा रहा है। फिर भी लघु एवं कुटीर उद्योगों की सफलता में कहां चूक हुई? स्वतंत्रता संग्राम से ही कुटीर उद्योग खादी व ग्रामीण हस्तशिल्पियों का महत्व समझने के बावजूद स्वतंत्रता के पांच दशक से अधिक समय बीतने के बाद भी उन्हे उचित स्थान क्यो नहीं दे पाये है? इस ज्वलंत प्रश्न की तह में देखेगे तो स्थितियों की सच्चाई को समझने के लिए देश के सबसे महत्वपूर्ण कपडा उद्योग की स्थिति को जानना होगा। सरकारी आंकडों के अनुसार लगभग 20 प्रतिशत कपडे का उत्पादन हथकरघा क्षेत्र में होता है, शेष 80 प्रतिशत कपडे का उत्पादन मिल व पावरलूम क्षेत्र में होता है। जो 20 प्रतिशत उत्पादन हथकरघा क्षेत्र में होता है, उस पर संकट के बादल घिरे रहते है। गांधी जी का कहना था कि हथकरघे के लिए सूत की उपलब्धि हाथ की कताई या चरखे से होनी चाहिए। अगर गांघी के इस सूझाव पर अमल किया जाता तो हाथ से बुने कपडे का उत्पादन एक प्रतिशत से भी कम के स्थान पर 20 प्रतिशत या उससे अधिक हो जाए।
लघु उद्योगों में श्रमिक अपनी हस्तकला का प्रदर्शन कर सकता है। लघु एवं कुटीर उद्योगों में छोटी मशीनों एवं विघुत शक्ति का उपयोग करे बिना भी श्रमिक अपनी प्रतिभा और कला का प्रदर्शन कर सकता है। लघु एवं कुटीर उद्योग पूंजी प्रधान न होकर श्रम प्रधान उद्योग है। कुछ उद्योगों में बहुत कम पूंजी की आवश्यकता होती है जैसे बीडी बनाना, रस्सी या टोकरी बनाना आदि। छोटे उद्योग आय एवं संपति के केद्रीकरण को बढावा न देकर उसके विकेंद्रीकरण को प्रोत्साहित करते है। अत: आर्थिक सत्ता के केद्रीकरण के दोषों को लघु एवं कुटीर उद्योगों के आधार पर कम किया जा सकता है तथा राष्ट्रीय आय का न्यायपूर्ण एवं उचित वितरण्ा किया जा सकता है। भारत में लघु एवं कुटीर उद्योगों ध्दारा उत्पादित वस्तुओं का निर्यात उतरोत्तर बढ रहा है। अनेक ऐसी कलात्मक वस्तुए है जो मशीनों से उत्पादित नहीं की जा सकती है जैसे हाथी दांत, संगमरमर, चंदन की लकडी आदि पर कलात्मक नमूने, उत्तम किस्म की कढाई, विभिन्न धातुओं पर नक्काशी का काम आदि। इसके लिए हस्तकौशल की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार हथकरघे के उत्तम किस्म के वस्त्र भी कुटीर उद्योगों के प्रतीक है। देश के कुल निर्यातों में लघु औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा 34 प्रतिशत है।
देश के आजाद होने के बाद लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास एवं प्रसार के लिए अनेक प्रकार के सरकारी उपाय किए गए है। इन उद्योगों के लिए सरकार ध्दारा किए गए विभिन्न उपायों में उद्योगों को वित्तीय सुविधाएं, तकनीकी सुविधाएं, विपणन सुविधाएं प्रदान की गई हैं जिसके फलस्वरूप अब भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु क्षेत्र के उद्योगों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है। अब लघु एवं कुटीर उद्योग क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग हो गया है। लघु एवं कुटीर उद्योगों को भविष्य में और विकास करने की आवश्यकता है जिससे कृषि पर लोगों की निर्भरता कम कर उन्हें उद्योग-धन्धें में लगाकर प्रति व्यक्ति आय बढाई जा सकती है तथा बेरोजगारी की समस्या से मुक्ति दिलाई जा सकती है।
भारतीय अर्थशास्त्र में लघु एवं कुटीर उद्योगों के महत्व का अनुमान उनकी उपयोगिता से लगाया जा सकता है। भारत में बेरोजगारी की समस्या विकट है। पढे-लिखे बेरोजगार युवक बेकारी एवं अर्धबेकारी की समस्या से परेशान है गांव में बडे पैमाने के उद्योग देश में फैले हुये बेरोजगारों को रोजगार नहीं दे सकते। भारतीय कृषि पर जनसंख्या का बोझ पहले से अधिक है जिसे कम किये बिना कृषि उद्योगों में कुशलता नहीं आ सकती है। अत: इतनी विशाल जनसंख्या को काम देने के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि देश में लघु एवं कुटीर उद्योगों का पयर्ाप्त विकास किया जाए। भारत में औसतन खेतों का आकार इतना छोटा है कि वह एक किसान परिवार का पालन पोषण नहीं हो सकता। भारत के कुछ भागों में जहां एक ही फसल होती है वहां कृषकों की दशा और भी खराब है। यदि पशुपालन आदि धंधों का सहारा न मिले तो वह अपना गुजारा भी नहीं कर सकते। अत: कृषि के सहायक धंधों के रूप में लघु एवं कुटीर उद्योगों का विशेष महत्व है। पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय, बागवानी, सूत कातना, कपडा बुनना, मधुमक्खी पालन आदि ऐसे उद्योग है जो सरलता से कृषि के मुख्य धंधों के साथ- साथ अपनाये जा सकते है।लघु एवं कुटीर उद्योगों की सबसे बडी समस्या कच्चा माल पर्यात मात्रा में नहीं मिल पाना है और यदि इन्हे मिलता भी है तो बडी परेशानी के बाद ऊॅचे मूल्य चुकाने के बाद। इससे इनकी लागत मूल्य बढ जाती है और वे अपने आर्डर का माल समय पर तैयार नहीं कर पाते। दूसरी प्रमुख बाधा वित्तीय सुविधाओं का अभाव है। लघु उद्योगपतियों की पूंजी सीमित होती है। व्यापारिक दर पर निजी स्रात्रों से ऋण लेना पडता है।
भारत सरकार द्वारा 1948 से अब तक लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर लगातार विशेष जोर दिया जा रहा है। फिर भी लघु एवं कुटीर उद्योगों की सफलता में कहां चूक हुई? स्वतंत्रता संग्राम से ही कुटीर उद्योग खादी व ग्रामीण हस्तशिल्पियों का महत्व समझने के बावजूद स्वतंत्रता के पांच दशक से अधिक समय बीतने के बाद भी उन्हे उचित स्थान क्यो नहीं दे पाये है? इस ज्वलंत प्रश्न की तह में देखेगे तो स्थितियों की सच्चाई को समझने के लिए देश के सबसे महत्वपूर्ण कपडा उद्योग की स्थिति को जानना होगा। सरकारी आंकडों के अनुसार लगभग 20 प्रतिशत कपडे का उत्पादन हथकरघा क्षेत्र में होता है, शेष 80 प्रतिशत कपडे का उत्पादन मिल व पावरलूम क्षेत्र में होता है। जो 20 प्रतिशत उत्पादन हथकरघा क्षेत्र में होता है, उस पर संकट के बादल घिरे रहते है। गांधी जी का कहना था कि हथकरघे के लिए सूत की उपलब्धि हाथ की कताई या चरखे से होनी चाहिए। अगर गांघी के इस सूझाव पर अमल किया जाता तो हाथ से बुने कपडे का उत्पादन एक प्रतिशत से भी कम के स्थान पर 20 प्रतिशत या उससे अधिक हो जाए।
लघु उद्योगों में श्रमिक अपनी हस्तकला का प्रदर्शन कर सकता है। लघु एवं कुटीर उद्योगों में छोटी मशीनों एवं विघुत शक्ति का उपयोग करे बिना भी श्रमिक अपनी प्रतिभा और कला का प्रदर्शन कर सकता है। लघु एवं कुटीर उद्योग पूंजी प्रधान न होकर श्रम प्रधान उद्योग है। कुछ उद्योगों में बहुत कम पूंजी की आवश्यकता होती है जैसे बीडी बनाना, रस्सी या टोकरी बनाना आदि। छोटे उद्योग आय एवं संपति के केद्रीकरण को बढावा न देकर उसके विकेंद्रीकरण को प्रोत्साहित करते है। अत: आर्थिक सत्ता के केद्रीकरण के दोषों को लघु एवं कुटीर उद्योगों के आधार पर कम किया जा सकता है तथा राष्ट्रीय आय का न्यायपूर्ण एवं उचित वितरण्ा किया जा सकता है। भारत में लघु एवं कुटीर उद्योगों ध्दारा उत्पादित वस्तुओं का निर्यात उतरोत्तर बढ रहा है। अनेक ऐसी कलात्मक वस्तुए है जो मशीनों से उत्पादित नहीं की जा सकती है जैसे हाथी दांत, संगमरमर, चंदन की लकडी आदि पर कलात्मक नमूने, उत्तम किस्म की कढाई, विभिन्न धातुओं पर नक्काशी का काम आदि। इसके लिए हस्तकौशल की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार हथकरघे के उत्तम किस्म के वस्त्र भी कुटीर उद्योगों के प्रतीक है। देश के कुल निर्यातों में लघु औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा 34 प्रतिशत है।
देश के आजाद होने के बाद लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास एवं प्रसार के लिए अनेक प्रकार के सरकारी उपाय किए गए है। इन उद्योगों के लिए सरकार ध्दारा किए गए विभिन्न उपायों में उद्योगों को वित्तीय सुविधाएं, तकनीकी सुविधाएं, विपणन सुविधाएं प्रदान की गई हैं जिसके फलस्वरूप अब भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु क्षेत्र के उद्योगों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है। अब लघु एवं कुटीर उद्योग क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग हो गया है। लघु एवं कुटीर उद्योगों को भविष्य में और विकास करने की आवश्यकता है जिससे कृषि पर लोगों की निर्भरता कम कर उन्हें उद्योग-धन्धें में लगाकर प्रति व्यक्ति आय बढाई जा सकती है तथा बेरोजगारी की समस्या से मुक्ति दिलाई जा सकती है।
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